Thursday, November 22, 2012

तब भी मैं ही था ; वहाँ भी मैं ही था


अशोक कुमार पाण्डेय  की कविताएं यहाँ पहले भी देखी गईं हैं . इस समय इंटरनेट पर सब से अधिक  सक्रिय इस कवि को मैंगत दो वर्षों से लगातार फॉलो कर रहा हूँ . और रीचार्ज हो रहा हूँ . कल फेस बुक पर अचानक यह महत्वपूर्ण कविता  देखा तो सोचा कि बिन पूछे इसे यहाँ चिपका दिया जाए. साफ दिखता है कि कविता एक दम ताज़ा है और ठाकरे की मृत्यु के बाद   इस मूढ़ देश  ने जिस तरह का व्यवहार किया उस की त्वरित प्रतिक्रिया के रूप मे निकली है. लेकिन कविता बहुत कम स्पेस लेता हुआ भी व्यापक स्कोप समेट रहा है . मैं इस कविता को अंग्रेज़ी मे पढ़ रहा हूँ और रोमाँचित हो रहा हूँ 





यह कविता नहीं है 
  • अशोक कुमार पाण्डेय 

(वह हर जगह था वैसा ही) 

मैं बम्बई में था
तलवारों और लाठियों से बचता-बचाता भागता चीखता
जानवरों की तरह पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डब्बों में लदा-फदा
सन साठ में दक्षिण भारतीय था, नब्बे में मुसलमान
और उसके बाद से बिहारी हुआ

मैं कश्मीर में था
कोड़ों के निशान लिए अपनी पीठ पर
बेघर, बेआसरा, मज़बूर, मज़लूम
सन तीस में मुसलमान था नब्बे में हिन्दू हुआ

मैं दिल्ली में था
भालों से गुदा, आग में भुना, अपने ही लहू से धोता हुआ अपना चेहरा
सैंतालीस में मुसलमान था
चौरासी में सिख हुआ

मैं भागलपुर में था
मैं बडौदा में था
मैं नरोडा-पाटिया में था
मैं फलस्तीन में था 
अब तक हूँ वहीँ अपनी कब्र में साँसे गिनता

मैं ग्वाटेमाला में हूँ 
मैं ईराक में हूँ
पाकिस्तान पहुँचा तो हिन्दू हुआ

जगहें बदलती हैं
वजूहात बदल जाते हैं
और मज़हब भी, मैं वही का वही !

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