Thursday, March 24, 2011

काश ऐसा ही होता जीवन !


निरंजन देव शर्मा कुल्लू मे मेरे सब से अज़ीज़ साहित्यिक मित्रों में हैं. ये साहित्य के गम्भीर एवं सचेत पाठक हैं. महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में इन की आलोचनात्मक टिप्पणियां आती रहतीं हैं. रविवारीय जनसत्ता (दुनिया मेरे आगे) मे नियमित कॉलम लिखते हैं. इन की कुछ कविताएं मैंने अनौपचारिक गोष्ठियों मे सुन रखीं थीं। वो वाली तो मुझे नहीं मिल पाईं, लेकिन कुछ ताज़ा रचनाएं जो खास इस ब्लॉग के लिए मुझे प्राप्त हुईं हैं. उन के अपने वक्तव्य के साथ लगा रहा हूँ.



"आपके कहने पर कविताओं जैसा कुछ रचते हुए मुझे लगा कि मैं कविताओं का पाठक ही भला हूँ। हर विधा प्रतिभा के साथ –साथ पर्याप्त अभ्यास भी चाहती है । मैं कविता की लहलहाती फसल देख कर आनंदित हो सकता हूँ उस फसल को तैयार करने करने का धैर्य मुझ में नहीं। "___________ निरंजन देव शर्मा

बच्चा जैसे

स्कूल से लौटते बच्चों को देख
जो दो लोग बातें कर रहे थे आपस में
एक बोला उन में से
ऐसा ही होना चाहिए स्कूल
कितने खुश –खुश जा रहे हैं बच्चे
मैंने सोचा
ऐसा ही होता जीवन
स्कूल से घर लौटता
उमंग से उछलता
बच्चा जैसे


बस के सफर में

एक
बस में अदा से
भानुमति के पिटारे को खोलता
दस के चार निकलता
बिखेरता अद्भुत रस
चूक गया है उस जादूगर की
अनूठी कला का जादू

दो
गाँव- कस्बे के बच्चे को भी नहीं रिझाती अब
संतरे वाली गोलियाँ , चूरन और चटपटी नींबू दाल
हिंदुस्तानी तड़का अब चमचमाते पोलिथीन
की नाइट्रोजन में कैद है

तीन
प्राइवेट बस का ड्राइवर देसी इलाज ही कराता है
पैकेज वाले अस्पताल में बूढ़े –बुढ़ियाँ
अब बेटे- बेटियों पर नहीं
कम तनख्वाह वाली नर्सों की दया पर हैं निर्भर
जो मुस्कान चिपकाय चेहरों पर
रहती हैं सेवारत
निरंतर ॥

चार
वाल्वो पैक है अन्दर
कानों पर इयरफ़ोन चिपकाए
लैपटाप खोले
सपाट चेहरों की बहुतायद से
साधारण बस का कंडक्टर
रोपड़ , समरला , लुधियाना
चिल्ला रहा है बाहर

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