Thursday, November 25, 2010

आप हिमालय को बचाएं ताकि हम उसे बेच सकें


15-16 नवम्बर 2010 को इंडिया हेबिटेट सेंटर दिल्ली में प्रज्ञा नामक संस्था ने दो दिवसीय कार्यशाला आयोजित की. विषय था ‘हिमालयी विरासत- मूल्यवृद्धिकरण एवम संरक्षण्’ . बात क्यों कि एक साथ बचाने और बेचने की हो रही रही थी, मुझे वहाँ जाना ज़रूरी लगा. कि भाई लोग दोनो का निर्वाह एक साथ कैसे कर पाते हैं? प्रज्ञा एक गुड़गाँव बेस्ड स्वयं सेवी संस्था है जो 7000 फीट से अधिक ऊँचाई वाले सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के आर्थिक साँस्कृतिक उत्थान के लिए कृत संकल्प है. इस के निदेशक गार्गी बेनर्जी नाम की दिल्ली वासी महिला हैं. केन्द्रीय राज्य मंत्री ग्रामीण विकास सुश्री अगाथा संगमा ने इस आयोजन का उद्घाटन किया. अपने सम्बोधन मे उन्होने कहा कि हिमालय की

जटिल चुनौतियों को समझना आसान नहीं है. कार्य शाला का फोकस मुख्यत: चार इदारों में था— Eco tourism, Horticulture, Handicrafts, Medicinal plants. बीज पत्र डॉ. महेन्द्र लामा का था जो सिक्किम विश्वविद्यालय के उप कुलपति एवम सिक्किम सरकार के आर्थिक सलाह्कार भी हैं. उन्हों ने चिंता व्यक्त की कि भूमण्डली करण के इस युग में हिमालय का अस्तित्व संकट मे है . उन्हों ने नाथुला व्यापार को फिर से खोलने के मुद्दे पर् विस्तार से चर्चा की. उन्हो ने चेताया कि अपनी विशिष्ठ भौगोलिकता के चलते हिमालय बरबस ही बहुराष्त्रीय कम्पनियों और विश्व की बड़ी शक्तियों का ध्यान खींच रहा है. मुझे अपनी कविता ‘एक बुद्ध कविता में करुणा.......’ की याद आई. वे बोले कि निस्सन्देह इस वर्ष क्रॉस बॉर्डर पॉवर ट्रेडिंग के तहत 20 करोड़ डॉलर का व्यापार हुआ है ,किंतु हमे यह भी ध्यान मे रखना चाहिए कि अन्धाधुन्ध जल विद्युत परियोजनाओं के चलते मौसम में व्यापक परिवर्तन आया है. जो बुराँश का फूल पूर्वी हिमालय में अप्रेल के बाद खिलता था इस वर्ष फर्वरी के प्रथम सप्ताह ही खिलता देखा गया. MSME मंत्रालय के सचिव श्री उदय कुमार ने कहा कि हिमालय को बचाना है तो ‘क्लस्टर’ बनाओ. फिर् उन्हो ने गालिब की खूबसूरत ग़ज़लें सुनाई. पता नही, अहिन्दी भाषी हिमालयी श्रोताओ ने इन ग़ज़लों को कितना समझा , पर एक शे’र मुझे याद रह् गया--
न तीर कमाँ में है न सय्याद कमी में
गोशे में क़फ़स की हमें आराम बहुत है
.

हिमाचल भाषा एवम संस्कृति निदेशक श्री प्रेम शर्मा ने हिमालय को दो तरीक़ों से बचाने की कोशिश की – सीमेण्ट फेक्ट्री का विरोध कर के . और पहाड़ी और भोटी भाषा को आठवीं अनुसूची में डाल कर. मैं ने दूसरे तरीक़े पर घोर आपत्ति दर्ज की तो वे काफी लाल हो गए थे. बाद मे लंच पर हम में सुलह हो गई. लकिन मैंने उन्हे जता दिया कि मैं *आप* से सुलह कर रहा हूँ; आप की सरकार की उस *वाहियात नीति* से क़तई नहीं, जो भाषाओं को राजाश्रय का मोह्ताज बना देना चाहती है. इस तरह बड़े बड़े इदारों से बड़े लोग आये थे जिन्हों ने अपनी अपनी समझ( सहूलियत) से इस कार्यशाला मे हिमालय को बचाया. हर कोई हिमालय की समृद्ध विरासत पर शोध करने (बचाने ?) के लिए अधिक से अधिक फण्ड माँग रहा था. मैं हैरान था. ....... *समृद्ध* को *बचाने* के लिए *धन * की ज़रूरत?

लेकिन इस आयोजन मे केवल ये बड़े लोग ही नही थे. कुछ कम्युनिटी पीपल भी आए थे. लद्दाख, स्पिति, लाहुल, पांगी, किन्नौर, निति, पिथौरागढ, दार्चुला, अरुणाचल,सिक्किम ,नेपाल , दार्जीलिंग के लोग अपनी पारम्परिक वेशभूशा मे IHC के पाँगण मे टहलते , बूफे का आनन्द लेते बहुत आकर्षक लग रहे थे. ज़ाहिर है उन्हे अपने बारे अच्छी अच्छी बातें सुन कर बहुत *अच्छा* लग रहा था. सच, ये ऐसे ही अच्छे बने रहे तो हिमालय मे पर्यटन खूब बढ़ेगा. जो पहले ही 880 मिलियन प्रति वर्ष का आँकड़ा पार कर चुका है. (इस में 5.5 मिलियन बुधिस्ट टूरिस्ट? है)
दूसरे दिन पहले सत्र में डाबर कम्पनी के डॉ. वृन्दावरन ने प्रज्ञा का आभार जताया कि उन्हो ने डाबर को कुठ के धन्धे ( कॉंट्रेक्ट फार्मिंग) में लाहुल में पाँव जमाने का मौका दिया. लाहुल के किसान की ताअरीफ मे उनने कहा कि वह बहुत मेहनती और समझदार है. जैसा कम्पनी को चाहिए वैसा उत्पादन कर के देता है. कम्पनी किसान को व्यापारी से प्रतिकिलो 32/- रुपये ज़्यादा दे रही है. लाहुल मेडिसिनल प्लांट उत्पादक सहकारी सभा के श्री रिग्ज़िन हायर्पा ने प्रज्ञा को धन्यवाद दिया कि उस ने वर्ष 2010-11 मे सभा से 52 लाख का माल खरीदा. बाद मे प्रज्ञा ने स्पष्ट किया कि वह माल दर असल डॉबर ने खरीदा था.
दूसरे सत्र मे सहकारिता पर प्रेसेंटेशन था. लोगों से पूछ गया कि सहकारी सभाओं से कितने लोग जुड़े हैं?केवल चार हाथ खड़े हुए. मुझे खुशी हुई कि चारों लोग लाहुल के थे.
आखिर में बायर-सेलर मीट था. खरीद फरोख्त का मामला था. तब तक काफी बातें समझ में आ गईं थीं. अगले दिन मुझे मनाली में लाहुली लेखन और लेखकों पर पर्चा पढ़ना था . मुझे फौरन ISBT की तरफ दौड़ना पड़ा.

13 comments:

  1. अच्‍छी रपट: आपकी सक्रि‍यता व वैचारि‍कता का प्रति‍भास....एक वाजि‍ब चिंता से हर आदमी गुज़रे तो वि‍कास का सकारात्‍मक पक्ष उजागर होना ही है।

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  2. very matter of fact and sincere reporting on a sensitive issue.I have been a frequent visitor to IHC as i used to live in its vicinity once.

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  3. शीर्षक कडुवा था, और इस कडुवे शीर्षक की बदौलत ही मैं यहां आया..
    उपयुक्त है.. आप बचायें और हम बेचें.. काश यह कडुवापन सब में आ सके..

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  4. I am greatful to you for putting across this piece of reporting. For a Lahauli youth who has been brought up outside Lahaul it is extremely hard to bridge the disconnect between the self and his land. It is reports like these that help me see things in the right perspective.

    It would have been even better had i known about this seminar in advance and been there for all the talks.

    I appreciate your reporting and analysis.

    Tsering

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  5. 'समृद्ध'को बचाने की ज़रूरत पड़ रही है.ज़ाहिर है 'टुच्चई' हर जगह हावी है.मनाली वाली रिपोर्ट का इंतज़ार है.

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  6. आप सभी का इस फाल्तू से रिपोर्ट को पढ़ने के लिए और कमेंट करने के लिए आभार. मैं चाहता था कि विमर्श चले, लेकिन साहित्यिक चुप,कवि कलाकार , बुद्धिजीवी चुप.हालाँकि फोन बहुत आ रहे हैं. भाईयो किसी भी गुनाह को होते देख आप चुप हैं तो समझो आप भी उस गुनाह मे शामिल हैं. मैं जानता हूँ मेरा चीखना चिल्लाना यहाँ कोई मायने नहीं रखता; लेकिन एक आवाज़ ज़िन्दा रखी ही जा सकती है.

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  7. शीर्षक बहुत ही गहरा है
    यह केवल एक कार्यशाला नही परन्तु मुझे लगता है आजकल बहुत कार्यशाला इसी उद्देश्य से आयोजित की जाती है
    लगता है विषयवस्तु इस कार्यशाला में डाबर था और हिमाचल कही इस विशाल डाबर के साम्राज्य में खो सा गया

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  8. दो तरह की दुनिया है। 'जियो ओर जीने दो ' का मुहावरा दो तरह से परिभाषित किया जा सकता है। मैंने एक कड़क नेता के सामने एक लाला को इस मुहावरे का नया प्रयोग करते सुना है। व्याख्या करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। तो भाई ! बुधीजीवी और लेखक भी कई प्रकार के पाये लाते हैं। असल मसला अपनी डफली बजाने और सुनाने का है। जो जितना ज़ोर से बजाएगा वही सुना जाएगा ।

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  9. Ham sabki taraf se
    Tumhaari soch ke liye
    'Thaks, Ajey.'

    Chaloo, Chacha Ghalib se hi bulwaayen...

    Pahle unke liye jo na samjhe hain
    Na samjhenge :

    "Bazeech-e-atfaal hai duniya mere aage.
    Hota hai shab-O-roz tamaasha mere aage."

    Aur tumhare liye :

    "Go haath ko jumbish nahin
    Aankho me toh dam hai
    Rahne do abhi sagar-O-meena mere aage."

    Himalaya ko sabse pahle sarkaaron aur Saahukaaron se bachaana hoga.
    Himaalaya tak aane waali har surang aur har sadak Himalaya ki dushman kyon hoti ja rahi hai?

    Baahri upaayon me ek hi upaay rah gaya hai :
    Yahaan wahi aaye jiske paas pagdandiyon par chlane ki hasrat, fursat aur tameez ho.

    Kya yah sambhav hai?
    Haan.
    Yahaan aane waale har vyakti ko pahle gahre dhyan se guzaara jaaye.

    Hamaara yahi kaam hai.
    Lekin sach yahi hai ki jinke haathon me satta hai aur jo sarkaari ya sansthaaon ke daftaron me baithe marne tak muft me charne ko taim paas kar rahe hain, unki aankhon me aankhen daal kar seedha sawaal karne waale yahaan pahaad me bhi dhoondhe nahin milte.

    Ham apni baat kahte rahen.
    'Hai Deeya hi bahut Roshni ke liye.'
    Muft me har kisi ko Roshni dee bhi nahin ja sakti.

    Kash, Himalaya me asli Bhediye bache rah gaye hote toh in ghatiya Bhediyon ko thoda dar toh lagta.

    Ab 'Buddham Sharnam' bhar de baat nahin banegi.
    Budh ke haath me ab talwar bhi chaahiye.

    "Pak chuki hain aadten
    Baaton se sar hongi nahin
    Koi hangaama karo
    Aise guzar hogi nahin."

    Abhi toh ham baat pahuncha rahe hain, magar sath dene waale jute to hamaara khufia Tola kuchh aur bhi Rang lega Basanti Chola.
    Bahut thode log hon, aur sachche hon. Baaten toh sabko aati hain.

    Himalayas is the first and Last Wisdom for Life. We are the not the part of Himalaya. We are the Himalayas.

    Ham Zen, Dhyan, meditation ko mool kaam maante hain, Wah kar hi rahe hain.

    Kuchh aise kaam bhi kar rahe hain, jise agar lekhak-kavi kism ke sarkaari aur batooni log jaan gaye to ham jaan se jaayenge. Unke paas sada 'Soch na paane ka adhikaar' jo hai.

    Karne me zindagi hai, bataane me maut. Bade maze hain sabse peechhe baithne ke ya chhipe-acharchit rah jaane ke.

    Ham sab ka prem.

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  10. सही कहा आपने। पहले तो अंधाधुंध परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता है और फिर पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अंधाधुंध पैसा खर्च किया जाता है। बीच में भाई लोगों की पुश्तें तर जाती हैं। वैसे पहाड़ को बचाने की उम्मीद दिल्ली, गुड़गाँव, नोएडा में वातानुकूलित कक्ष में गाल बजाने वालों से की भी कैसे जा सकती है, जबकि पहाड़ के प्रति टूरिस्ट की सी फौरी तौर पर घिर आयी संवेदना के काफूर होने में वक्त ही कितना लगना है।
    वैसे आपकी रपट बहुत कुछ कह जाती है, अपने आक्रोश को संयमित रखने की कोशिश के बावजूद।

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  11. पहाड़ का दर्द समझने वालों को ओशिया द न्यू वूमन और उस की *टीम* की ओर से प्रेम.

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  12. हिमालय सिर्फ आर्थिकी का ज़रिया नहीं अपितु जैव वनस्पति विविधता से भरपूर है जितना महत्व दोहन और बाज़ारीकरण की और ध्यान दिया जा रहा है उससे ज्यादा ज़रूरी है वो विशेष क्षेत्र में उस विशिष्ट स्थिति को बनाये रखे जो उस वन संपदा के लिए अनिवार्य है। और जहाँ तक दोहन की बात है वहाँ के स्थानीय निवासियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।

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